आप तो चाहेंगे कि आपका बच्चा आत्मविश्वास से भरा हो| सही निर्णय ले
सकें| जिंदगी में शिखर
पर पहुंचे| ऐसे में जरूरी है
कि आप उनकी हर बात, पसंद-नापसंद आदि
में दखलअंदाजी देना बंद करें| उनकी भावनाओं को समझें| हर बात पर अपनी पसंद न थोपे| हर वक्त उन्हें अपने चश्मे से ही ना देखें| क्योंकि, जब बच्चे बड़े
होने लगते हैं ,तो उनके आसपास की
दुनिया भी बड़ी होने लगती है| वे बाहर की दुनिया भी देखना-समझना चाहते हैं| वे खुद अपना
रास्ता बनाकर मंजिल पाना चाहते हैं| मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो अभिभावक अपने बच्चों के साथ इस
प्रकार का व्यवहार करते हैं, उनके मन में यह डर रहता है कि अगर उन्होंने बच्चों पर
नियंत्रण खो दिया, तो वे उनके हाथ
से निकल जाएंगे| यह नकारात्मक सोच
है| अगर आप उनके सही
निर्णयों पर भी दखलअंदाजी करेंगे, तो वे ठीक से कोई फैसला नहीं कर पाएंगे| उनमें
आत्मविश्वास की कमी होगी और लिए गए निर्णयों पर संदेह रहेगा| वहीं, बच्चों को भी
चाहिए कि जो बात उन्हें दखलअंदाजी वाली
लगती है, उस पर माता-पिता
से बात करें| उन्हें समझाएं कि
यह बात उनके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं| उनकी बात न मानने का उनका इरादा नहीं, बल्कि 'मेरी बात भी' सही है, जैसी भावना उन तक
पहुंचाएं| अगर उनके मन में
असुरक्षा की भावना है, तो उन्हें यकीन
दिलाएं कि आप हर वक्त और हर कदम पर उनके साथ हैं|
कितनी रोक, कितनी टोंक
"ऐसा करो! ऐसा मत
करो! इधर आओ, उधर मत जाओ...|" हिदायत की लिस्ट बच्चे की
उम्र बढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जाती है | अभिभावक बच्चे को सुरक्षित देखना चाहते हैं| आगे बढ़ाना चाहते
हैं| लेकिन, हर बात में तो
टोकना कितना सही है?
कहीं आपकी हिदायतें बच्चे के लिए बंदिश तो नहीं बन रही?
बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षाएं होने में अभी समय था| रोजी काफी खुश थी| तैयारी अच्छी थी,
इसलिए जब क्लास के दोस्तों ने पिकनिक की योजना बनाई, तो उसने भी हामी
भर दी| तय हुआ कि पिकनिक
के समय ही फेयरवेल भी कर लेंगे| रोजी ने हामी तो भर दी थी, लेकिन उसको पता था कि मम्मी उसे पिकनिक पर नहीं
जाने देगी किसी दूसरे शहर में तो बिल्कुल भी नहीं| रोजी आज तक अपनी इच्छानुसार अपनी मम्मी को कभी
राजी नहीं कर पाई| चाहे किसी friend के घर जाना हो, कहीं ब्याह- शादी
में जाना हो, कोई पसंद की मूवी
देखनी हो या फिर मनपसंद विषय चुनने हो| छोटी-छोटी बातों के लिए भी उसे अपनी मम्मी को समझाना बड़ा
कठिन और कभी-कभी असंभव-सा हो जाता है| उसे आसानी से इजाजत तो कभी नहीं मिली| पहले सोचती थी कि
वह लड़की है, शायद इसलिए
मम्मी-पापा जरूरत से अधिक चिंतित रहते हैं मगर ऐसा नहीं था| वह भाई के लिए भी
उतने ही सख्त हैं| हमेशा अपनी
बात ही मनवाने की आदत है उन्हें| यह सारी बातें मन
में आते ही उसका चेहरा उतर गया|
रोजी तो खैर अभी अपने मम्मी-पापा के घर में ही है| निशा तो ससुराल
में है| साहिल जैसा अच्छा
पति है| साहिल इकलौता
बेटा है, इसलिए मां-बाप का
दुलारा भी है | सास-ससुर के
अलावा घर में कोई और नहीं है| साहिल का जन्मदिन आ रहा है निशा अपनी पसंद की शर्ट गिफ्ट
देना चाहती है, जिसे वह उस खास
दिन पर उसके लिए पहने, लेकिन ऐसा होगा
नहीं| क्योंकि शर्ट तो
वह पहनेगा मगर निशा की पसंद वाली नहीं बल्कि अपनी मम्मी की पसंद वाली यही वह वजह
है, जिसके चलते निशा
को कोई खुशी नहीं हो रही|
शर्ट की बात तो
ठीक है, मगर घर में उस
दिन खाने में क्या बनेगा,
इसकी सूची भी
साहिल की मम्मी ही बनाएगी|
चलो इतना भी सहन
कर लेगी निशा, लेकिन हद तो यह
है कि वह पति के साथ अपनी पसंद की फिल्म भी नहीं देख पाएगी| यह भी उसके पापा
बताएंगे कि कौन-सी फिल्म कहां पर देखनी है| आखिर फिल्मों के शौकीन जो ठहरे| रोजी हो या निशा, दोनों ही
अपने-अपने जीवन में मां-बाप या फिर सास-ससुर की रोज-रोज की दखलंदाजी से परेशान है| रोजी अभी पढ़ रही
है, लेकिन अब वह
बच्ची नहीं है| समझदार हो चुकी
है, जबकि निशा तो
शादी के बाद बड़े अरमान लेकर ससुराल आई थी| यहां तो सबकुछ उल्टा हो रहा है| बड़े और शादीशुदा
होकर बच्चे अपने निर्णय खुद से करने लगते हैं और उनकी अपनी पहचान भी समाज में बनने
लगती है| साहिल भी अपने
मम्मी पापा को किसी बात पर राजी नहीं कर पाता, घर से बाहर भी कोई फैसला विश्वास के साथ नहीं कर पाता|
घर में तो उसकी चलती ही नहीं| ऐसे उदाहरण अब बढ़ते जा रहे हैं, जहां माता-पिता
की अपने जवान बच्चों के जीवन में दखलअंदाजी इस हद तक बढ़ गई कि झगड़े और अनबन की स्थिति पैदा हो गई| मतभेद इतने बढ़
जाते हैं कि या तो अभिभावक मानसिक बीमारी का शिकार हो जाते हैं, या फिर बच्चे
अवसाद की गिरफ्त में आ जाते हैं| क्या खाना है, क्या पीना है, कहां जाना है, क्या करना है, क्या नहीं करना है, यह सब माता-पिता ही तय करते हैं|
इसका सीधा असर बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ता है| उनका आत्मविश्वास
डगमगाने लगता है| बचपन तक तो ठीक
है, मगर बड़े बच्चों
पर अपनी पसंद-नापसंद थोपना,
मां बाप के लिए
ही नहीं, बच्चों के भविष्य
के लिए भी हानिकारक है| एक तो बच्चों के
मन में यह बात बैठ जाती है कि आखरी फैसला माता-पिता का ही रहेगा, तो फिर वह क्यों
अपना दिमाग लगाएं|
मनोस्थिति को समझें
आजकल पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं और इतने व्यस्त रहते
हैं कि बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते? उनकी हर भावनात्मक जरूरत की भरपाई पैसों से करने की कोशिश
करते हैं| इस कोशिश में
बच्चा धीरे-धीरे उनसे केवल उतना ही संबंध रखने लगता है, जितने में उसकी
जरूरतें पूरी होती है| ऐसे में अगर आप
बच्चों को उनके किए किसी गलत काम के लिए डांटते हैं, तो वह गुस्सा करने लगते हैं
इसलिए बच्चों की मनोस्थिति को समझना बहुत
जरूरी है|
क्या करें
जब बच्चे बड़े होने लगते हैं, तो उनके आसपास की दुनिया भी बड़ी होने लगती है, वे बाहर की
दुनिया भी देखना-समझना चाहते हैं| यदि इस दुनियादारी को देखने-समझने में माता-पिता ही रुकावट
बनने लगे, तो क्या होगा? उन बच्चों का
भविष्य क्या होगा ? ऐसे मां-बाप अपने
चश्मे से ही सब कुछ दिखाना चाहते हैं| हर वक्त उनसे अपने इर्द-गिर्द होने की उम्मीद में अनावश्यक
दखलअंदाजी करते हैं| नतीजा, रिश्तो में
दूरियां बनने लगती हैं| यदि लिहाज कर
बच्चे हर बात मानने लग जाएं तो उनका जीवन बेकार होने के खतरे बढ़ जाते हैं| ऐसे में, जितना हो सके, माता-पिता के साथ
संतुलित व्यवहार बनाए रखें|
इस बीच अपने
व्यक्तित्व को निखारने का काम करें| इसके लिए घर के अन्य सदस्यों या फिर दोस्तों-शिक्षकों का भी
सहारा ले सकते हैं|
जो बात दखलअंदाजी वाली लगती है, उस पर ठंडे दिमाग
से सोचे, फिर अपने
माता-पिता से बात करें| उन्हें समझाएं कि
यह बात उनके लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं| उनकी बात
काटने या न मानने का इरादा नहीं, पबल्कि 'मेरी बात भी' सही है, जैसी भावना उन तक
पहुंचाएं| ऐसे मां-बाप
अक्सर बच्चों को अपने त्याग और बलिदान के किस्से सुनाते हैं, जो उन्होंने बच्चों के लिए किए हैं| इसी के आधार पर
वे कभी-कभी भावनात्मक ब्लैकमेल भी करने लगते हैं| कोशिश कर ऐसी किसी स्थिति को पैदा न होने दें| क्योंकि एक बार
ऐसा हो गया, तो यह छोटे
बच्चों की तरह हर बार की बात हो जाएगी| अपना पक्ष जरूर रखें| वैचारिक मतभेद अपनी
जगह और रिश्ते अपनी जगह| अपने माता-पिता को बदलें की नजर से नहीं देखें, बल्कि उनका ख्याल
रखें| जब भी उन्हें आपकी
जरूरत महसूस हो, उनके करीब जाएं| इससे रिश्तो का
कच्चा धागा टूटने से बचा रहेगा| हो सके तो उनके बीते दौर को जानने की कोशिश करें| उनकी दुनिया में
थोड़ा झांके, उनके मन की बात
सुने| हो सकता है कि वे
असल में ऐसे न हो| मजबूरी या
असुरक्षा की भावना के तहत ऐसा कर रहे हो| मतलब यही कि ऐसे
माता-पिता को बच्चा समझकर भी आपको उनकी देखभाल करनी पड़ सकती है| याद रखिए, वे आपके
माता-पिता हैं| उन्होंने आपका
कदम-कदम पर साथ दिया है| किसी अनजाने भय से वे आप पर नियंत्रण रखना
चाहते हैं, उस भय को खत्म करने की योजना
बनाइए| लड़ने-झगड़ने और
दूरियां बढ़ाने से बात और बिगड़ सकती है| एक्सपर्ट भी यही सलाह देते हैं|
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
अक्सर देखा जाता है कि जो अभिभावक अपने बच्चों के साथ इस
प्रकार का व्यवहार करते हैं, उनकी खुद की परवरिश भी ऐसे ही माहौल में हुई होती है| भारतीय समाज में
हमेशा ही बच्चों पर अभिभावक ही नियंत्रण रखते हैं| यह भी
मानसिकता है, या कहें कि डर है
कि अगर हमने बच्चों पर नियंत्रण खो दिया तो वे हमारे हाथ से निकल जाएंगे| एक तरह से यह
नकारात्मक सोच है| जब बच्चों की
शादी हो जाती है या वे हॉस्टल में रहने बाहर जाते हैं , तो उन्हें बड़ी
दिक्कतें आती हैं| वे ठीक से निर्णय
नहीं ले पाते| आत्मविश्वास कम
हो जाता है| अकेले कुछ नहीं
करने की आदत से उनका आत्मविश्वास पूरी तरह से गिर जाता है| मां-बाप को यह
समझना चाहिए कि उनकी वजह से वे आगे चलकर ठीक से कोई फैसला नहीं कर पाएंगे| उनका सामाजिक
विकास नहीं हो पाएगा| ऐसे मां-बाप के
मन में यह बात आ जाती है कि उनका बच्चा उनसे दूर हो जाएगा| वे खुद को
असुरक्षित महसूस करते हैं|
वह बच्चों को तो
बदलना चाहते हैं, लेकिन खुद बदलने
के लिए अभी तैयार नहीं होते| ऐसे अभिभावक जिद्दी स्वभाव वाले
होते हैं| उनमें अहम आ जाता है| कभी-कभी तो वे बड़े बच्चों पर हाथ भी उठाने लगते हैं| देखा जाए तो उनकी परवरिश
में ही दोष है| मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक और
समाज विज्ञानी इसे एक सामाजिक और मानसिक
बीमारी मानते हैं| इनके अनुसार, ऐसे मां-बाप की
काउंसलिंग होनी चाहिए| क्योंकि उनको
नहीं पता कि अपने बच्चों का कितना भारी नुकसान कर रहे हैं| ऐसे मां-बाप
अक्सर वैसा व्यवहार करते हैं, जैसा बचपन में
उनके साथ हुआ होता है| वे असुरक्षित
महसूस करते हैं,भला खुद
असुरक्षित महसूस करने वाला बच्चों को क्या
सुरक्षा देंगे?
0 comments: